आचार्य श्रीराम शर्मा >> महिला जाग्रति महिला जाग्रतिश्रीराम शर्मा आचार्य
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महिला जागरण की आवश्यकता और उसके उपाय
नारी का परमपूज्य देवी रूप
जीवसृष्टि की संरचना जिस आदिशक्ति महामाया द्वारा संपन्न होती है, उसे विधाता भी कहते हैं और माता भी। मातृशक्ति ने यदि प्राणियों पर अनुकंपा न बरसाई होती, तो उसका अस्तित्व ही प्रकाश में न आता। भ्रूण की आरंभिक स्थिति एक सूक्ष्मबिंदु मात्र होती है। माता की चेतना और काया उसमें प्रवेश करके परिपक्व बनने की स्थिति तक पहुँचाती है। प्रसव-वेदना सहकर वही उसके बंधन खोलती और विश्व-उद्यान में प्रवेश कर सकने की स्थिति उत्पन्न करती है। असमर्थ-अविकसित स्थिति में माता ही एक अवलंब होती है, जो स्तनपान कराती और पग-पग पर उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। यदि नारी के रूप में माता समय-समय पर चित्र-विचित्र प्रकार के अनुग्रह न बरसाती तो मनुष्य ही नहीं, किसी भी जीवधारी की सत्ता इस विश्व-ब्रह्मांड में कहीं भी दृष्टिगोचर न होती, इसलिए उसी का जीवनदायिनी ब्रह्मचेतना के रूप में अभिनंदन होता है। वेदमाता, देवमाता व विश्वमाता के रूप में जिस त्रिपदा की पूजा- अर्चा की जाती है, प्रत्यक्षतः उसे नारी ही कहा जा सकता है।
मनुष्य के अतिरिक्त प्रतिभावान प्राणियों में देव-दानवों की गणना होती है। कथा है कि वे दोनों ही दिति और अदिति से उत्पन्न हुए। सृजनशक्ति के रूप में इस संसार में जो कुछ भी सशक्त, संपन्न, विज्ञ और सुंदर है, उसकी उत्पत्ति में नारीतत्त्व की ही अहं भूमिका है, इसलिए उसकी विशिष्टता को अनेकानेक रूपों में शत-शत नमन किया जाता है। सरस्वती, लक्ष्मी और काली के रूप में विज्ञान का तथा गायत्री-सावित्री के रूप में ज्ञानचेतना के अनेकानेक पक्षों का विवेचन होता है।
देवत्व के प्रतीकों में प्रथम स्थान नारी का और दूसरा नर का है। लक्ष्मी-नारायण, उमा-महेश, शची-पुरंदर, सीता-राम, राधे-श्याम जैसे देव-युग्मों में प्रथम नारी का और पश्चात नर का उल्लेख होता है। माता का कलेवर और संस्कार बालक बनकर इस संसार में प्रवेश पाता और प्रगति की दिशा में कदम बढ़ाता है। वह मानुषी दीख पड़ते हुए भी वस्तुतः देवी है। उसके नाम के साथ प्रायः देवी शब्द जुड़ा भी रहता है। श्रेष्ठ एवं वरिष्ठ उसी को मानना चाहिए। भाव-संवेदना, धर्म-धारणा और सेवा-साधना के रूप में उसी की वरिष्ठता को चरितार्थ होते देखा जाता है।
पति से लेकर भाई और पुत्र तक को, उनकी रुचि एवं माँग के अनुरूप वही विभिन्न रूपों से निहाल करती है। व्यवहार में उसे तुष्टि, तृप्ति और शांति के रूप में अनुभव किया जाता है। आत्मिक क्षेत्र में वही भक्ति, शक्ति और समृद्धि है। उसका कण-कण सरसता से ओत-प्रोत है। इन्हीं रूपों में उसका वास्तविक परिचय प्राप्त किया जा सकता है। नर उसे पाकर धन्य बना है और अनेकानेक क्षमताओं का परिचय देने में समर्थ हुआ है। इस अहैतुकी अनुकंपा के लिए उसके रोम-रोम में कृतज्ञता, श्रद्धा और आराधना का भाव उमड़ते रहना चाहिए। इस कामधेनु का जो जितना अनुग्रह प्राप्त कर सकने में सफल हुआ है, उसने उसी अनुपात में प्रतिभा, संपदा, समर्थता और प्रगतिशीलता जैसे वरदानों से अपने को लाभान्वित किया है। तत्त्ववेत्ता अनादिकाल से नारी का ऐसा ही मूल्यांकन करते रहे हैं और जन-जन को उसकी अभ्यर्थना के लिए प्रेरित करते रहे हैं। शक्तिपूजा का समस्त विधि-विधान इसी मंतव्य को हृदयंगम कराता है।
विकासक्षेत्र में प्रवेश करते हुए हर किसी को इसी के विभिन्न रूपों की साधना करनी पडी है। श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा, क्षमता, दक्षता, कला, कुशलता और दूरदर्शिता के रूप में उसी महाशक्ति के सूक्ष्म स्वरूप का वरण किया जाता है। साधना से सिद्धि की परंपरा इसी आधार पर प्रकट होती रही है। संसार में सभ्यता और समझदारी वाले दिनों में नारी को उसकी गौरव-गरिमा के अनुरूप जन-जन का भाव-भरा सम्मान भी मिलता रहा है-तदनुरूप सर्वत्र सतयुगी सुख-शांति का वातावरण भी दृष्टिगोचर होता रहा है।
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